Complete Guide to म प्र पटवारी भर्ती 2017 पंचायती राज Panchayati Raj and Gramin Arthvyavastha : Basic Concept, Online Videos, Books and PDF File

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Complete Panchayati Raj and Gramin Arthvyavastha Material : Books, PDF

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  1. ऑनलाइन आवेदन – पटवारी भर्ती परीक्षा – 2017
  2. MP Patwari Exam Syllabus 2017: सब्जेक्ट वाइज सिलेबस
  3. MP Patwari Exam Book Topic Wise : पटवारी एग्जाम बुक्स डिटेल्स
  4. MP Patwari Exam 2017 Preparation Guide : Exam Pattern, Syllabus, Online Material and Books to Prepare | पटवारी एग्जाम बुक्स डाउनलोड
  5. सब्जेक्ट वाइज मटेरियल डाउनलोड 

  6. Previous Year Question Papers and Model Test Papers : पटवारी पुराने एग्जाम पेपर्स एवं मॉडल मॉक टेस्ट पेपर्स डाउनलोड ..NEW Updated.

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Aiye ab dekh lete he Panchayati Raj se related Notes –

I. Online Material for Panchayati Raj : Patwari Exam  2017 

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  5. ग्रामीण अर्थव्यवस्था मटेरियल   PDF Collected By Site  – Gramin Arth Vyavastha 
  6. Questions  On Panchayati Raj – PDF Collected By Site  : Panchayati Raj Q and A
  7. राजस्थान  Panchayati Raj PDF File Download : Click Here
  8. Panchayati Raj System in India and MP both Click Here
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3. Important Websites Related for Panchayati Raj

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Our Online Study Material for Panchayati Raj and Gramin Arth vyavastha 

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I. बेसिक ऑफ़ पंचायती राज : Basics of Panchayati Raj 

1. संवैधानिक प्रवधान : Sanvethanic Pravthan on Panchayati Raj

भारतीय संविधान के अनुच्छेद ४० में राज्यों को पंचायतों के गठन का निर्देश दिया गया हैं। 1991मैं संविधान में ७३वां संविधान संशोधन अधिनियम, १९९२ करके पंचायत राज संस्था को संवैधानिक मान्यता दे दी गयी हैं।

  • बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशें (1957) –
  • अशोक मेहता समिति की सिफारिशें (1977) –
  • डॉ एल ऍम सिन्घवी समिति (१९८६) –
  • ग्राम सभा को ग्राम पंचायत के अधीन किसी भी समिति की जाँच करने का अधिकार

2. पंचायती राज : Panchayati Raj Introduction 

24 अप्रैल 1993 भारत में पंचायती राज के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मार्गचिन्ह था क्योंकि इसी दिन संविधान (73वां संशोधन) अधिनियम, 1992 के माध्यम से पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा हासिल हुआ और इस तरह महात्मा गांधी के ग्राम स्वराज के स्वप्न को वास्तविकता में बदलने की दिशा में कदम बढ़ाया गया था।

73वें संशोधन अधिनियम, 1993 में निम्नलिखित प्रावधान किये गये हैं:

  • एक त्रि-स्तरीय ढांचे की स्थापना (ग्राम पंचायत, पंचायत समिति या मध्यवर्ती पंचायत तथा जिला पंचायत)
  • ग्राम स्तर पर ग्राम सभा की स्थापना
  • हर पांच साल में पंचायतों के नियमित चुनाव
  • अनुसूचित जातियों/जनजातियों के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में सीटों का आरक्षण
  • महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों का आरक्षण
  • पंचायतों की निधियों में सुधार के लिए उपाय सुझाने हेतु राज्य वित्ता आयोगों का गठन
  • राज्य चुनाव आयोग का गठन

73वां संशोधन अधिनियम पंचायतों को स्वशासन की संस्थाओं के रूप में काम करने हेतु आवश्यक शक्तियां और अधिकार प्रदान करने के लिए राज्य सरकार को अधिकार प्रदान करता है। ये शक्तियां और अधिकार इस प्रकार हो सकते हैं:

संविधान की गयारहवीं अनुसूची में सूचीबध्द 29 विषयों के संबंध में आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार करना और उनका निष्पादन करना

कर, डयूटीज, टॉल, शुल्क आदि लगाने और उसे वसूल करने का पंचायतों को अधिकार

राज्यों द्वारा एकत्र करों, डयूटियों, टॉल और शुल्कों का पंचायतों को हस्तांतरण

3. ग्राम सभा : Gram Sabha 

ग्राम सभा किसी एक गांव या पंचायत का चुनाव करने वाले गांवों के समूह की मतदाता सूची में शामिल व्यक्तियों से मिलकर बनी संस्था है।

गतिशील और प्रबुध्द ग्राम सभा पंचायती राज की सफलता के केंद्र में होती है। राज्य सरकारों से आग्रह किया गया है कि वे:-

पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम, 1996 में उल्लिखित प्रावधानों के अनुसार ग्राम सभा को शक्तियां प्रदान करें।

गणतंत्र दिवस, श्रम दिवस, स्वतंत्रता दिवस और गांधी जयंती के अवसर पर देश भर में ग्राम सभा की बैठकों के आयोजन के लिए पंचायती राज कानून में अनिवार्य प्रावधान शामिल करना।

पंचायती राज अधिनियम में ऐसा अनिवार्य प्रावधान जोड़ना जो विशेषकर ग्राम सभा की बैठकों के कोरम, सामान्य बैठकों और विशेष बैठकों तथा कोरम पूरा न हो पाने के कारण फिर से बैठक के आयोजन के संबंध में हो।

ग्राम सभा के सदस्यों को उनके अधिकारों और शक्तियों से अवगत कराना ताकि जन भागीदारी सुनिश्चित हो और विशेषकर महिलाओं तथा अनुसूचित जाति/जनजाति के लोगों जैसे सीमांतीकृत समूह भाग ले सकें।

ग्राम सभा के लिए ऐसी कार्य-प्रक्रियाएं बनाना जिनके द्वारा वह ग्राम विकास मंत्रालय के लाभार्थी-उन्मुख विकास कार्यक्रमों का असरकारी ढंग़ से सामाजिक ऑडिट सुनिश्चित कर सके तथा वित्तीय कुप्रबंधन के लिए वसूली या सजा देने के कानूनी अधिकार उसे प्राप्त हो सकें।

ग्राम सभा बैठकों के संबंध में व्यापक प्रसार के लिए कार्य-योजना बनाना।

ग्राम सभा की बैठकों के आयोजन के लिए मार्ग-निर्देश/कार्य-प्रक्रियाएं तैयार करना।

प्राकृतिक संसाधनों, भूमि रिकार्डों पर नियंत्रण और समस्या-समाधान के संबंध में ग्राम सभा के अधिकारों को लेकर जागरूकता पैदा करना।

73वां संविधान संशोधन अधिनियम ग्राम स्तर पर स्व-शासन की संस्थाओं के रूप में ऐसी सशक्त पंचायतों की परिकल्पना करता है जो निम्न कार्य करने में सक्षम हो:

ग्राम स्तर पर जन विकास कार्यों और उनके रख-रखाव की योजना बनाना और उन्हें पूरा करना।

ग्राम स्तर पर लोगों का कल्याण सुनिश्चित करना, इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, समुदाय भाईचारा, विशेषकर जेंडर और जाति-आधारित भेदभाव के संबंध में सामाजिक न्याय, झगड़ों का निबटारा, बच्चों का विशेषकर बालिकाओं का कल्याण जैसे मुद्दे होंगे।

73वें संविधान संशोधन में जमीनी स्तर पर जन संसद के रूप में ऐसी सशक्त ग्राम सभा की परिकल्पना की गई है जिसके प्रति ग्राम पंचायत जवाबदेह हो। ७४वें संविधान संशोधन!

4. History Behind पंचायती राज

भारत गांवों का देश है। गांवों की उन्नति और प्रगति पर ही भारत की उन्नति एवं प्रगति निर्भर करती है। महात्मा गांधी के अनुसार, यदि गांव नष्ट होते हैं तो भारत नष्ट हो जाएगा। भारत के संविधान निर्माता भी इस तथ्य से भली-भांति परिचित थे, अतः देश के विकास एवं उन्नति को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण शासन व्यवस्था की ओर पर्याप्त ध्यान दिया गया। संविधान के अनुच्छेद-40 के अंतर्गत पंचायती राज व्यवस्था को राज्य के नीति-निदेशक तत्वों के अंतर्गत रखा गया है। वस्तुतः भारतीय लोकतंत्र इस आधारभूत अवधारणा पर आधारित है कि शासन के प्रत्येक स्तर पर जनता अधिक-से-अधिक शासन सम्बन्धी कार्यों में हाथ बंटाए तथा स्वयं पर राज्य करने का उत्तरदायित्व स्वयं वहन करे। पंचायतें भारत के राष्ट्रीय जीवन की रीढ़ हैं। देश के राजनीतिक भविष्य एवं भावी राजनीतिक चाल का निर्धारण संघीय व्यवस्था में बैठे बड़े-बड़े राजनीतिज्ञ की अपेक्षा, विभिन्न राज्यों के ग्रामीण अंचलों में विद्यमान पंचायती राज संस्थाएं ही करती हैं।

4.1 बलवंत राय मेहता समिति

भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम का आरम्भ 1952 में हुआ था। फलस्वरूप, आम जनता इस कार्यक्रम से प्रत्यक्ष रूप में जुड़ नहीं पाई। इसी समस्या के निदान के लिए बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में 1957 में एक समिति गठित की गई और इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 1958 में प्रस्तुत की। इस समिति ने लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के सिद्धांत पर आधारित त्रिस्तरीय स्वरूप वाली पंचायती राज व्यवस्था की वकालत की। उन्होंने सुझाव दिया कि त्रिस्तरीय व्यवस्था इस प्रकार होगी- ग्राम पंचायत गांव स्तर पर, पंचायत समिति प्रखंड स्तर पर और जिला परिषद जिला स्तर पर। दूसरे शब्दों में, परिवारों के समूह पंचायत, पंचायतों के समूह प्रखड तथा प्रखंडों के समूह जिला परिषद की स्थापना करते हैं। अंततः राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों को 12 जनवरी, 1958 को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। इस समिति ने, सत्ता के विकेंद्रीकरण पर जोर दिया जिससे स्थानीय शासन में निचले स्तर के लोगों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके और जिसका परिणाम सामुदायिक विकास की सफलता होगी। समिति ने राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका पर भी जोर दिया और वित्तीय संकट, जो स्थानीय संस्थाओं को स्थायी संकट में डाले रहता है, का निवारण राज्य द्वारा ही संभव है। बलवंत राय मेहता समिति की प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सर्वप्रथम आंध्र प्रदेश में प्रयोग के विचार से अगस्त, 1958 में कुछ भागों में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को लागू किया गया। इसकी सफलता के फलस्वरूप 2 अक्टूबर, 1959 को स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राजस्थान के नागौर जिले में प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण की योजना का सर्वप्रथम औपचारिक शुभारंभ किया।

उसके बाद अन्य राज्यों ने भी पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। परंतु इस प्रयास को भी उतनी सफलता नहीं मिली जितनी आशा की गई थी। इसके कारण हैं- पंचायती राज संस्थाओं में धन की कमी होना, जिसके लिए वह पूरी तरह राज्य सरकारों पर निर्भर थी। इस संकट ने पूरे प्रयास को असफल बना दिया। दूसरा कारण यह था कि पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों के बीच कार्यों को लेकर बड़ी भिन्नता था और एक-दूसरे को दोषारोपण करना आम बात बन गई। अतः इससे भी पूरी धारणा को आघात पहुंचा। संस्थाओं के वरिष्ठ तथा कनिष्ठ व्यक्तियों के बीच भी आंतरिक मतभेद बने रहते थे। तीसरा महत्वपूर्ण कारण था कि समाज के उच्च वर्ग, यथा- जमींदारों, उच्च जाति के लोगों तथा समाज के सम्पन्न व्यक्तियों के कब्जे में आकर पंचायती राज व्यवस्था मृतप्राय हो गई। परिणाम यह हुआ कि आम जनता ने ऐसी संस्थाओं से अपना मुंह मोड़ लिया और पूरी व्यवस्था की सफलता संदिग्ध स्थिति में आ गई। चौथा कारण था कि गांवों में निरक्षरों की भरमार तथा राजनीतिक चेतना के अभाव ने भी इन संस्थाओं के स्वस्थ कार्यकलाप पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया।

4.2 अशोक मेहता समिति

उपरोक्त प्रयासों की असफलता के बाद पंचायती राज संस्थाओं पर विचार करने एवं पंचायती राज को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए 1977 में अशोक मेहता समिति गठित की गई। इस समिति ने 1978 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। इस समिति ने पंचायती राज को द्विस्तरीय बनाने का सुझाव दिया- पहला, निचले स्तर पर-मंडल पंचायत, तथा; दूसरा, जिला-स्तर पर-जिला परिषद। परंतु, अशोक मेहता समिति की सिफारिशों को देश की राजनीतिक अस्थिरता के कारण लागू नहीं किया जा सका।

ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एल.एम. सिंघवी की अध्यक्षता में 1986 में एक समिति का गठन किया । इसका उद्देश्य पंचायती राज व्यवस्था की जांच करना था। इस समिति ने ग्राम सभा को पुनर्जीवित करने तथा पंचायती राज के नियमित चुनाव कराने पर बल दिया। इस समिति ने पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देने की भी सिफारिश की।

पंचायती राज की नई प्रणाली

संविधान के अनुच्छेद 40 के रूप में एक निदेश समाविष्ट किया गया- राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनकी ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।  लेकिन अनुच्छेद 40 में इस निर्देश के होते हुए भी पूरे देश में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि प्रतिनिधिक लोकतंत्र की इकाई के रूप में इन स्थानीय इकाइयों के लिए निर्वाचन कराए जाएं। इस दृष्टि से पंचायत को अधिक सुचारू रूप से चलाने के लिए संविधान के 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक मान्यता प्रदान की गई है। संविधान में नया अध्याय 9 जोड़ा गया है। अध्याय 9 द्वारा संविधान में 16 अनुच्छेद और एक अनुसूची-ग्यारहवीं अनुसूची, जोड़ी गयी है। 25 अप्रैल, 1993 से 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1993 लागू किया गया है। इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं-

पंचायती राज संबंधी महत्वपूर्ण समिति एवं अध्ययन दल
बलवंत राय मेहता समिति (1957) सामुदायिक विकास कार्यक्रम के कार्यान्वयन की समीक्षा।
वी.के. राव समिति (1960) पंचायत संबंधी सांख्यिकी की तर्कसंगतता
एस.डी. मिश्र अध्ययन दल (1961) पंचायत एवं सहकारिता का अध्ययन
वी. ईश्वरन अध्ययन दल (1961) पंचायत राज प्रशासन का अध्ययन
जी.आर. राजगोपाल अध्ययन दल (1962) न्याय पंचायत के गठन का अध्ययन
दिवाकर समिति (1963) ग्राम सभा की स्थिति की समीक्षा
एम. रामा कृष्णनैया अध्ययन दल (1963) पंचायती राज संस्थाओं की आय-व्यय गणना का अध्ययन
के. संथानम समिति (1963) पंचायती राज संस्थाओं को वित्तीय प्रावधान एवं स्थिति की समीक्षा
के. संथानम समिति (1965) पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचन की रुपरेखा सम्बन्धी अध्ययन
आर.के. खन्ना अध्ययन दल (1965) पंचायती राज संस्थाओं के लेखा एवं अंकेक्षण।
जी. रामचंद्रन समिति (1966) पंचायतों के लिए प्रशिक्षण केंद्रों की आवश्यकता पर अध्ययन।
वी. रामानाथन अध्ययन दल (1969) भूमि सुधार उपायों के कार्यान्वयन में सामुदायिक विकास अभिकरण एवं पंचायती
राज संस्थाओं की संलिप्तता एवं भूमिका।
एम. रामा कृष्णनैया अध्ययन दल (1972) पांचवीं पंचवर्षीय योजना में सामुदायिक विकास एवं पंचायती राज को प्रमुख उद्देश्य के रूप में रखना।
दया चौबे समिति (1976) सामुदायिक विकास एवं पंचायती राज की समीक्षा।
अशोक मेहता समिति (1977) पंचायती राज के मूल एवं प्रशासनिक ढांचे संबंधी तत्व।
दांतेवाला समिति (1978) खण्ड स्तर पर योजना स्वरूप
हनुमंत राव समिति (1984) जिला स्तरीय योजना का स्वरूप
जी.वी.के. राव समिति (1985) ग्रामीण विकास के लिए प्रशासनिक समायोजन एवं गरीबी निवारण कार्यक्रम।
एल.एम. सिंघवी समिति (1986) लोकतंत्र एवं विकास के लिए पंचायती राज संस्थाओं का पुनर्सशक्तीकरण।
पी.के. थुगंन समिति (1989) स्थानीय निकायों की संवैधानिक मान्यता की अनुशंसा।

तीन सोपान प्रणाली

संविधान के भाग 9 के अंतर्गत अनुच्छेद-243(ख) के द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। प्रत्येक राज्य में ग्राम स्तर, मध्यवर्ती स्तर एवं जिला स्तर पर (क्रमशः ग्राम पंचायत, पंचायत समिति एवं जिला परिषद) पंचायती राज संस्थाओं का गठन किया जाएगा; किंतु, 20 लाख से कम जनसंख्या वाले राज्यों में मध्यवर्ती स्तर पर पंचायतों का गठन करना आवश्यक नहीं होगा।

1. ग्राम पंचायत: पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत सबसे निचले स्तर पर ग्राम पंचायत होती है, जिसका चुनाव ग्राम सभा द्वारा किया जाता है। ग्राम सभा में एक गांव अथवा छोटे-छोटे कई गांवों के समस्त वयस्क नागरिक (18 वर्ष से ऊपर के) सम्मिलित होते हैं, जो कि एकत्रित होकर अथवा ग्राम सभा का क्षेत्र अलग-अलग चुनाव क्षेत्रों में विभक्त होने की स्थिति में अपने-अपने निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित तिथि को मतदान करते हैं। ग्राम सभा द्वारा वार्षिक बजट पर विचार किया जाता है तथा यह निर्धारित किया जाता है कि आगामी वर्ष में खेती की उपज का क्या लक्ष्य रखा जाए? पंचायत के सभी सदस्यों एवं सरपंच का चुनाव ग्राम सभा द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।

2. पंचायत समिति: पंचायती राज व्यवस्था में मध्य के अर्थात् प्रखण्ड स्तर पर पंचायत समिति होती है। पंचायत समिति का संगठन सभी राज्यों में एक समान नहीं है। इसके सदस्यों में सम्मिलित हैं- विधानसभा के सदस्य; लोकसभा के सदस्य; प्रखण्डों के समस्त प्रधानों, सहकारी समितियों एवं छोटी नगरपालिकाओं तथा अधुसुचित क्षेत्रों के प्रतिनिधि; प्रखण्ड से निर्वाचित अथवा प्रखण्ड में निवास करने वाले विधानपरिषद एवं राज्यसभा के सदस्य; प्रखण्ड से निर्वाचित जिला परिषद के समस्त सदस्य; विकास एवं आयोजन में रुचि रखने वाले दो सहयोजित सदस्य तथा महिलाओं एवं अनुसूचित जातियों के कुछ सहयोजित प्रतिनिधि सम्मिलित होते हैं। विकास अधिकारी इसका सचिव होता है। इसका अध्यक्ष निर्वाचित होता है तथा इसकी सहायतार्थ उप-प्रधान भी चुने जाते हैं।

इस सम्पूर्ण योजना में पंचायत समिति सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्था है। प्रखंड की समस्त ग्राम पंचातयों के मध्य सामंजस्य रखना एवं समस्त विकास कार्यों को चलाना इसी का कार्य है। ऊपर से प्राप्त होने वाले अनुदान का ग्राम पंचायतों के मध्य विभाजन पंचायत समिति द्वारा ही किया जाता है।

3. जिला परिषद: पंचायती राज व्यवस्था के पदसोपान क्रम में जिला परिषद शीर्षस्थ संस्था है। इसका संगठन भी पंचायत समिति के नमूने पर ही किया गया है। इसके सदस्यों का निर्वाचन भी जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है। इसके अतिरिक्त जिले के समस्त विधायक, संसद सदस्य, राज्य विधानपरिषद के सदस्य एवं कुछ महिलाएं तथा अनुसूचित जातियों के सहयोजित सदस्य भी जिला परिषद के सदस्य होते हैं। प्रत्येक जिला परिषद में एक निर्वाचित अध्यक्ष होता है, जिसे जिला प्रमुख कहा जाता है। इसके अतिरिक्त एक उपाध्यक्ष भी होता है, जिसे उप-जिला प्रमुख कहते हैं।

विभिन्न राज्यों में स्थानीय एवं आवश्यकता के अनुसार पंचायती राज संस्थाओं के संगठन एवं कार्यों में अंतर होते हुए भी निम्नलिखित 5 सिद्धांत समान रूप से स्वीकृत किए गए हैं-

  1. ग्राम से जिले तक पंचायती राज का संगठन त्रि-स्तरीय रहना तथा उसकी समस्त संस्थाओं के मध्य औद्योगिक सम्बन्ध स्थापित किए जाने चाहिए।
  2. अधिकारों एवं दायित्वों का हस्तांतरण वास्तविक रूप में होना चाहिए।
  3. नई संस्थाओं द्वारा अपने दायित्व भली-भांति वहन कर सकने हेतु अपने पास पर्याप्त मात्रा में साधन उपलब्ध होने चाहिए।
  4. प्रत्येक स्तर का विकास कार्यक्रम उसी प्रकार की संस्था द्वारा कार्यान्वित होना चाहिए।
  5. सम्पूर्ण अवस्था ऐसी होनी चाहिए की इन संस्थाओं को भविष्य में और अधिक दायित्व एवं अधिकार सहज ही सौंपें जा सकेंगे।

पंचायतों की संरचना

राज्य विधानमंडल को विधि द्वारा पंचायतों की संरचना के लिए उपबंध करने की शक्ति प्रदान की गई है, परन्तु किसी भी स्तर पर पंचायत के प्रादेशिक क्षेत्र की जनसँख्या और ऐसी पंचायत में निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की संख्या के बीच अनुपात समस्त राज्य में यथासंभव एक ही होगा। पंचायतों के सभी स्थान पंचायत राज्य क्षेत्र के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने गए व्यक्तियों से भरे जाएंगे। इस प्रयोजन के लिए प्रत्येक पंचायत क्षेत्र को ऐसी रीति से निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जायेगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या और उसको आवंटित स्थानों की संख्या के बीच अनुपात समस्त पंचायत क्षेत्र में यथासाध्य एक ही हो। प्रत्येक पंचायत का अध्यक्ष राज्य द्वारा पारित विधि के अनुसार निर्वाचित होगा। इस विधि में यह बताया जाएगा कि ग्राम पंचायत और अंतर्वर्ती पंचायत के अध्यक्षों का जिला पंचायत में प्रतिनिधित्व किस प्रकार का होगा। इस विधि में संघ और राज्य के विधानमण्डलों के सदस्यों के सम्मिलित होने के बारे में उपबंध होगा। किंतु, यह ग्राम स्तर से ऊपर के लिए ही होगा।

आरक्षण

अनुच्छेद 243(घ) के अंतर्गत अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। आरक्षण उनकी जनसंख्या के अनुपात में होगा। उदाहरण के लिए यदि अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 30 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों की 21 प्रतिशत है तो उनके लिए क्रमशः 30 प्रतिशत और 21 प्रतिशत स्थान आरक्षित होंगे। इस प्रकार आरक्षित स्थानों में से 1/3 स्थान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे। प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों में से 1/3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

राज्य विधि द्वारा ग्राम और अन्य स्तरों पर पंचायत के अध्यक्ष के पदों के लिए आरक्षण कर सकेगा। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए किए गए आरक्षण तब तक प्रवृत्त रहेंगे जब तक अनुच्छेद 334 में विनिर्दिष्ट अवधि समाप्त नहीं हो जाती। राज्य विधि द्वारा किसी भी स्तर की पंचायत में नागरिकों के पिछड़े वर्गों के पक्ष में स्थानों का आरक्षण कर सकेगा।

अवधि

पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष होगा। किसी पंचायत के गठन के लिए निर्वाचन 5 वर्ष की अवधि के पूर्व और विघटन की तिथि से 6 माह की अवधि के अवसान से पूर्व करा लिया जायेगा।

सदस्यता के लिए अर्हता

अनुच्छेद 248 (च) में यह उपबंध है कि वे सभी व्यक्ति जो राज्य विधानमंडल के लिए निर्वाचित होने की अर्हता रखते हैं, पंचायत का सदस्य होने के लिए अर्ह होंगे। केवल एक अंतर है 21 वर्ष की आयु का व्यक्ति भी सदस्य बनने के लिए अर्ह होगा। यदि यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कोई सदस्य निरर्हता से ग्रस्त हो गया है या नहीं तो यह प्रश्न ऐसे प्राधिकारी को विनिर्दिष्ट किया जाएगा जो राज्य विधानमण्डल विधि द्वारा उपबंधित करे।

वित्त आयोग

राज्य का राज्यपाल 73वें संशोधन प्रारम्भ से एक वर्ष के भीतर और उसके बाद प्रत्येक 5 वर्ष के अवसान पर पंचायतों की वित्तीय स्थिति का पुनर्निरीक्षण करने के लिए एक वित्त आयोग का गठन करेगा। वित्त आयोग निम्नलिखित विषय में राज्यपाल की अपनी सिफारिश करेगाः

  1. ऐसे करों, शुल्कों, पथ करों और फीसों को दर्शाना जो पंचायतों की प्रदान की जा सकें,
  2. राज्य की संचित निधि में पंचायतों के लिए सहायता अनुदान,
  3. पंचायतों की वित्तीय स्थिति के सुधार के लिए उपाय बताना।

राज्य निर्वाचन आयोग

अनुच्छेद 243ट में पंचायतों के लिए राज्य निर्वाचन आयोग के गठन का उपबंध है जिसमे एक राज्य निर्वाचन आयुक्त होगा, जिसकी नियुक्ति राज्यपाल करेगा। निर्वाचक नामावली तैयार कराने का और पंचायतों के निर्वाचनों के संचालन का अधीक्षण निदेशन और नियंत्रण इस राज्य निर्वाचन आयोग में निहित होगा। आयोग स्वतंत्र बना रहे यह सुनिश्चित आधारों पर और उसी प्रक्रिया से हटाया जा सकता है जिस प्रकार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जा सकता है।

न्यायालयों के हस्तक्षेप का वर्जन

अनुच्छेद 329 में यह कहा गया है कि निर्वाचन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने पर न्यायालय उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। उसी प्रकार न्यायालयों को इस बात की अधिकारिता नहीं होगी कि वे अनुच्छेद 243ट के अधीन निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन या स्थानों के आवंटन से संबंधित किसी विधि की वैधानिकता की परीक्षा करें। पंचायत का निर्वाचन, निर्वाचन-अर्जी पर ही प्रश्नगत किया जा सकेगा जो ऐसे प्राधिकारी को और ऐसी रीति से प्रस्तुत की जाएगी जो राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विहित किया जाए।

पंचायती राज व्यवस्था की कार्य प्रणाली

इस परिप्रेक्ष्य में संविधान में ग्यारहवीं अनुसूची जोड़ी गयी है, जिसमें पंचायती राज संस्थाओं से संबंधित 29 विषय रखे गये हैं। इन 29 विषयों में सम्मिलित हैं:

  1. कृषि, जिसमें कृषि विस्तार भी सम्मिलित है;
  2. भूमिसुधार,भू-सुधार का क्रियान्वयन, भूमि संयोजन एवं मृदा सरक्षण,
  3. लघु सिंचाई, जल-प्रबंधन एवं वाटरशेड विकास;
  4.  पशुपालन, डेयरी एवं कुक्कुट पालन,
  5. मत्स्यन;
  6. सामाजिक वानिकी एवं उद्यान वानिकी;
  7. लघु वन्य उपज;
  8. लघु उद्योग, जिसमें विद्युत का वितरण भी सम्मिलित है;
  9. ग्रामीण आवास;
  10. खादी, ग्रामीण एवं सूती कपड़ा उद्योग;
  11. पेयजल;
  12. ईंधन एवं पशुचारा;
  13. ग्रामीण विद्युतीकरण;
  14. सड़कों, पुलों, घाटों, जलमार्गों एवं संचार के अन्य साधनों का विकास;
  15. गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोत;
  16. निर्धनता उन्मूलन कार्यक्रम;
  17. शिक्षा, जिसमें प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा भी सम्मिलित है;
  18. तकनीकी प्रशिक्षण एवं व्यावसायिक शिक्षा;
  19. लेखा जांच एवं अनौपचारिक शिक्षा;
  20. वाचनालय;
  21. सांस्कृतिक गतिविधियां, एवं;
  22. बाजार एवं हाट
  23. स्वास्थ्य और स्वच्छता, जिनके अंतर्गत अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और औषधालय भी हैं।
  24. परिवारकल्याण
  25. महिला और बाल विकास
  26. समाजकल्याण, जिसके अंतर्गत विकलांगों और मानसिक रूप से मंद व्यक्तियों का कल्याण भी है।
  27. दुर्बल वर्गों का और विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का कल्याण
  28. सार्वजनिक वितरण प्रणाली
  29. सामुदायिक आस्तियों का अनुरक्षण

जिला परिषद स्तर पर

ग्रामीण स्वायत्त शासन की सर्वोच्च इकाई होने के कारण जिला परिषद का मुख्य कार्य समन्वयकर्ता एवं परामर्शदाता निकाय का है। साथ ही उससे यह अपेक्षा भी की जाती है कि वह राज्य सरकार अथवा निम्नस्तरीय पंचायतों के मध्य की कड़ी भूमिका का निर्वहन करेगी। यदि प्रभावपूर्ण ढंग से कार्य किया जाए तो जिला परिषद पंचायती राज संस्थाओं की व्यवस्था पर स्वस्थ्य प्रभाव डालकर वांछित परिवर्तन ला सकती है।

पंचायत समिति स्तर पर

पंचायती राज की वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत पंचायत समिति वह धुरी है, जिसके चारों ओर पंचायती राज की समस्त प्रवृत्तियां केन्द्रित हैं। जिला परिषद् केवल एक परामर्शदात्री एवं पर्यवेक्षी संस्था है। कार्यपालिका के समस्त वास्तविक अधिकार एवं कर्तव्य पंचायत समितियों में ही निहित हैं। पंचायत समितियों द्वारा सम्पादित किए जाने वाले कार्यों में प्रमुख हैं-

  1. सामुदायिक विकास कार्य: पंचायत समिति अधिक रोजगार उत्पादन तथा सुख-सुविधाएं प्राप्त करने हेतु ग्राम समुदायों का गठन करती है। इन ग्राम समुदायों के माध्यम से पंचायत समिति द्वारा ग्रामीण जनता को स्वालंबी बनाने तथा लोक कल्याणकारी गतिविधियों को प्रोत्साहन प्रदान किया जाता है।
  2. पशुपालन: स्थानीय पशुओं की नस्ल सुधारना, कृत्रिम गर्भाधान केन्द्रों की स्थापना करना, सुधरे हुए पशु खाद्य उपलब्ध कराना, छूत की बीमारियों को रोकना, पशु चिकित्सालयों की स्थापना करना, दुग्धशालाओं की स्थापना एवं दूध भेजने का प्रबंध करना, ऊन की के अधीन तालाबों में मत्स्यपालन को प्रोत्साहित करना इत्यादि पंचायत समिति के कार्य हैं।
  3. कृषि सम्बन्धी कार्य: पंचायत समिति के कृषि सम्बन्धी कार्यों में सम्मिलित हैं- अधिक कृषि उत्पादन हेतु योजनाओं का निर्माण करना एवं उन्हें क्रियान्वित करना, भूमि एवं जल-साधनों का प्रयोग करना, नवीनतम शोध पर आधारित कृषि की सुधरी हुई रीतियों का प्रसार करना, लघु सिंचाई कार्यों का निर्माण करना, सिंचाई के कुओं तथा बांधों का निर्माण एवं मेढ़ें बनाने में ग्रामीणों की सहायता करना, भूमि को कृषि के योग्य बनाना, एवं कृषि भूमियों का संरक्षण करना, उन्नत बीजों का वितरण करना, स्थानीय खाद सम्बन्धी साधनों का विकास करना, सुधारे हुए कृषि उपकरणों के प्रयोग एवं निर्माण को प्रोत्साहन देना, पौध संरक्षण करना, राज्य आयोजन में बताई गई नीति के अनुसार, व्यापारिक फसलों का विकास करना, सिचांई तथा कृषि के विकास के लिए ऋण एवं अन्य सुविधाएं उपलब्ध करना, इत्यादि।
  4. स्वास्थ्य एवं सफाई: टीकाकरण की व्यवस्था करने सहित स्वास्थ्य सेवाओं का व्यापक विस्तार एवं रोगों की रोकथाम करना, शुद्ध पेयजल की व्यवस्था करना, परिवार नियोजन हेतु लोगों को प्रोत्साहित करना, औषधालयों एवं प्रसूति केन्द्रों का नियमित रूप से निरीक्षण करना, व्यापक स्वच्छता एवं स्वास्थ्य हेतु अभियान चलाना तथा पोषक आहार एवं संक्रामक रोगों के सम्बन्ध में ग्रामीणों में चेतना जागृत करना।
  5. सहकारिता से सम्बन्धित कार्य: पंचायत समितियों का यह दायित्व है कि वे ग्राम सेवा सहकारी समितियों के औद्योगिक, सिंचाई, कृषि तथा अन्य सहकारी संस्थाओं की स्थापना में सहायता देकर ग्रामीण क्षेत्र में सहकारिता को प्रोत्साहन दें।
  6. शिक्षा एवं समाज शिक्षा के कार्य: पंचायत समितियां शिक्षा एवं समाज शिक्षा सम्बन्धी कार्यों के संदर्भ में प्रमुखतः ये कार्य सम्पादित करती हैं- प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना करना; माध्यम स्तर की छात्रवृत्तियां एवं आर्थिक सहायता प्रदान करना; लड़कियों में शिक्षा का प्रसार करना; प्रौढ़ शिक्षा की व्यवस्था करना; अध्यापकों के लिए क्वार्टरों का निर्माण करना; पुस्तकालयों की स्थापना करना, तथा; युवा संगठनों, सामुदायिक एवं विनोद केन्द्रों की स्थापना करना।
  7. संचार साधनों सम्बन्धी कार्य: पंचायत समितियों द्वारा अंतःपंचायत सड़कों एवं इस प्रकार की सड़कों पर पुलों का निर्माण तथा उनका संरक्षण किया जाता है।
  8. कुटीर उद्योग: पंचायत समितियों का यह दायित्व है कि वे रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने एवं आत्मनिर्भरता को बढ़ाने हेतु कुटीर और छोटे स्तर के उद्योगों का विकास, उद्योग एवं नियोजन सम्बन्धी सम्भावित साधनों का सर्वेक्षण, उत्पादन एवं प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना एवं संरक्षण, कारीगरों और शिल्पकारों की कुशलता को बढ़ावा, सुधरे हुए औजारों को लोकप्रिय बनाने की दिशा में पहल करें।
  9. पिछड़े वर्गों के लिए कार्य: पंचायत समितियां अनुसूचित जाती/जनजाति एवं अन्य पिचादे वर्गों के छात्रों के लिए छात्रावासों का प्रबन्ध करें। उनका यह भी दायित्व है कि वह स्वयंसेवी संगठनों को मजबूत बनाकर समाज कल्याण की गतिविधियों में वांछित समन्वय की स्थापना करे। इसके अतिरिक्त पंचायत समितियों द्वारा मद्य-निषेध एवं समाज सुधार सम्बन्धी प्रचार भी किए जाते हैं।
  10. अन्य कार्य: उल्लिखित कार्यों के अतिरिक्त पंचायत समितियों द्वारा निम्नांकित कार्य भी सम्पन्न किए जाते हैं-
  • आग, बाढ़, महामारियों एवं अन्य व्यापक प्रभावशाली आपदाओं की दशा में आपातकालीन सहायता का प्रबन्ध करना।
  • राज्य सरकार, जिला परिषद् एवं पंचायत समिति द्वारा आवश्यक समझे जाने वाले आंकड़ों का संग्रहण एवं संकलन करना।
  • ऐसे किसी उद्देश्य की पूर्ति हेतु बनाए गए न्यासों का प्रबंध जिसके लिए पंचायत समितियों की निधि का प्रयोग किया जाए।
  • ग्राम भवन का निर्माण करना
  • पंचायत की समस्त गतिविधियों का पर्यवेक्षण एवं उनका मार्ग-दर्शन तथा ग्राम पंचायत योजनाओं का निर्माण करना।
  • घृणास्पद, हानिकारक व्यापारों, धंधों तथा रीति रिवाजों का नियमन करना।
  • गन्दी बस्तियों का पुनरुद्धार करना।
  • हाटों तथा अन्य सार्वजनिक संस्थाओं, जैसे-सार्वजनिक पाकों, बागों फलोद्यानों और फार्मों की स्थापना, प्रबंध साधारण एवं निरीक्षण करना।
  • रंगमंचों की स्थापना एवं उनका प्रबंध करना।
  • खण्ड में स्थित दरिद्रालयों, आश्रमों, अनाथालयों, पशु चिकित्सालयों तथा अन्य संस्थाओं का निरीक्षण करना।
  • अल्प-बचत एवं बीमा योजनाओं के माध्यम से मितव्ययिता की प्रोत्साहन प्रदान करना।
  • लोक कला एवं संस्कृति को प्रोत्साहन प्रदान करना।

पंचायत समितियों के उल्लिखित कार्यों पर दृष्टिपात करने पर ज्ञात होता है कि विकास सम्बन्धी कार्यों एवं योजनाओं की प्रभावी ढंग से क्रियान्वित करने का उत्तरदायित्व पंचायत समितियों का ही होता है। अपने कार्यों को अच्छे ढंग से चलाने हेतु पंचायत समितियों द्वारा अनेक स्थायी समितियों की स्थापना की जाती है, जिन्हें पंचायत समितियां अपने अधिकार उनके कार्यों के अनुसार सौंप देती हैं। अतः स्थायी समितियों के निर्णय पंचायत समिति के निर्णय माने जाते हैं किन्तु अंतिम अधिकार एवं उत्तरदायित्व पंचायत समितियों के ही होते हैं।

ग्राम पंचायत स्तर पर

ग्राम पंचायतें पंचायती राज व्यवस्था की आधारशिलाएं हैं। पंचायती राज व्यवस्था की सफलता एवं उसकी प्रभावपूर्ण क्रियान्विति पंचायतों की सुदृढ़ता एवं शक्ति पर ही निर्भर करती है। 73वें संविधान संशोधन अधिनियम के अंतर्गत पंचायतों की महत्वपूर्ण स्थिति को स्वीकृति प्रदान की गई है। ग्राम पंचायतों द्वारा विविध एवं बहुमुखी कार्यों को सम्पन्न किया जाता है, जिनमें से प्रमुख कार्य हैं

  1. प्रशासनिक कार्य: इनमें जनगणना करना और रोजगार संबंधी आंकड़े तैयार करना, सरकारी सहायता को पंचायत क्षेत्र तक पहुँचाना अपने क्षेत्र की शिकायतों को सरकारी अधिकारियों तक पहुंचाना, ग्राम विकास योजनाओं पर विचार-विनिमय करना तथा कृषि एवं गैर-कृषि उत्पादन में वृद्धि की योजनाएं बनाना आदि कार्य सम्मिलित हैं।
  2. कृषि एवं वन्य संरक्षण सम्बन्धी कार्य: गांव की बेकार पड़ी भूमि को कृषि योग्य बनाना, कृषि उत्पादन वृद्धि में सहायता देना, उत्तम बीजों के उत्पादन तथा प्रयोग को प्रोत्साहित करना, सरकारी कृषि को प्रोत्साहित करना, खाद के गड्ढे बनाना एवं बेचना, ग्रामीण क्षेत्रों में वनारोपण करना और उनकी रक्षा करना, आदि।
  3. सफाई एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी कार्य: इस क्षेत्र के कार्यो में पेयजल की व्यवस्था करना, सार्वजनिक गलियों, नालियों एवंतालाबों, आदि की सफाई सार्वजनिक स्वास्थ्य की रक्षा एवं उन्नति तथा चिकित्सा प्रबंध, शवों को जलाने एवं गाड़ने हेतु स्थान का प्रबंध करना, सार्वजानिक शौचालयों का निर्माण, व्यक्तिगत शौचालयों का नियंत्रण, इमारतों के के निर्माण का नियंत्रण, चाय-दूध इत्यादि की दुकानों को लाइसेंस प्रदान करना, प्रसूति गृह एवं शिशु केन्द्रों की स्थापना इत्यादि कार्य सम्मिलित हैं।
  4. शैक्षिक एवं सांस्कृतिक कार्य: ग्राम पंचायत के इन कार्यो में मुख्य रूप से सम्मिलित हैं- शिक्षा का विस्तार, कला एवं संस्कृति को प्रोत्साहन, मनोरंजन आदि के लिए अखाड़ों एवं क्लबों की व्यवस्था, सार्वजानिक पुस्तकालयों तथा वाचनालयों इत्यादि की व्यवस्था, सामाजिक तथा नैतिक उत्थान के कार्य, जैसे-शराब बंदी, छुआ-छूत की समाप्ति, पिछड़े वर्गों का कल्याण, आदि।
  5. सार्वजनिक निर्माण सम्बन्धी कार्य: इस प्रकार के कार्यों में सार्वजानिक नालियों, पुलों का निर्माण एवं उनकी मरम्मत, सार्वजानिक इमारतों की व्यवस्था, सार्वजानिक तालाबों एवं कुओं की व्यवस्थाएवं उनकी स्वच्छता का प्रबंध, धर्मशालाओं का निर्माण एवं व्यवस्था, पशुघरों की स्थापना एवं नियंत्रण, शराब की दुकानों एवं बूचड़खानों का नियंत्रण, स्नान एवं कपड़े  धोने के घाटों का प्रबंध, अकाल आदि के समय लोगों के लिए कम एवं रोजगार आदि की व्यवस्था सार्वजनिक गलियों एवं बाजारों में वृक्षारोपण एवं उनका संरक्षण करना, आदि कार्य सम्मिलित हैं।
  6. जनहित सम्बन्धी कार्य: इनमें सम्मिलित कार्य हैं- भू-सुधार सम्बन्धी योजनाओं में सहायता करना, प्राकृतिक प्रकोपों के समय ग्रामवासियों की मदद करना, परिवार नियोजन का प्रचार करना, विकास कार्यों के लिए श्रमदान करना, समितियों की स्थापना करना, आदि।
  7. अन्य कार्य: ग्राम पंचायतों के कार्यक्षेत्र में आने वाले कुछ अन्य प्रमुख कार्य हैं- पशुओं की नस्ल सुधारना और रोगों से उनकी रक्षा मरम्मत, डाक-तार विभाग की ओर से अपने क्षेत्र में डाक-सेवा की व्यवस्था करना अल्प-बचत योजनाओं को प्रोत्साहन देना, कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करना अपने क्षेत्र के निवासियों एवं फसलों की सुरक्षा करना, आग बुझाने (अग्निशमन) की प्रभावी व्यवस्था करना, इत्यादि।

देश के कई राज्यों में पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचन कराये जाते हैं। केंद्र सरकार भी इस दिशा में राज्यों को पूर्ण सहयोग प्रदान कर रही है। इसके द्वारा राज्यों के उन अधिकारियों एवं कर्मचारियों को प्रशिक्षित भी किया जाता है, जो इस कार्य से जुड़े हुये हैं। इस प्रशिक्षण का उद्देश्य पंचायती राज व्यवस्था के संबंध में आये नये उत्तरदायित्वों के संबंध में सरकारी अमले को प्रशिक्षित करना है। केंद्र सरकार द्वारा राज्यों के पंचायत मंत्रियों की एक राष्ट्रीय समिति भी गठित की गयी है। यह समिति पंचायती राज व्यवस्था के संबंध में बनाये गये संवैधानिक प्रावधानों के क्रियान्वयन की समीक्षा करती है तथा इस संबंध में राज्यों की दिशा-निर्देश एवं परामर्श भी प्रदान करती है। केवल केंद्र सरकार को यह अधिकार है कि पंचायती राज के संबंध में वह राज्यों द्वारा की गयी किसी भी गलती या उदासीनता के प्रति चेतावनी दे सकती है। देश में इसके अतिरिक्त कोई अन्य ऐसी संस्था या संगठन नहीं है, जो इस संबंध में राज्यों की चेतावनी या निर्देश दे सके। राज्यों की विधायिकाओं को यह अधिकार है कि वे पंचायतों के चुनावों से संबंधित सभी मुद्दों को परिवर्तित कर सकती है या उन पर नियम-कानून बना सकती हैं।

जिला योजना समितियां पंचायतों एवं नगरपालिकाओं दोनों के संबंध में योजनाओं का निर्माण करती है तथा इन संस्थाओं एवं राज्यों के मध्य समन्वय स्थापित करती हैं। इस समिति के सदस्य जिला स्तर की पंचायत एवं नगरपालिकाओं से चुने जाते हैं।

73वां संविधान संशोधन का कतिपय क्षेत्रों को लागू न होना

  1. अनुच्छेद 243(ड) के अनुसार इस भाग की कोई बात अनुच्छेद 244(1) में निर्दिष्ट अनुसूचित क्षेत्रों और 244(2) में निर्दिष्ट जनजाति क्षेत्रों को लागू नहीं होगी।
  2. इस भाग की कोई बात नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, एवं मणिपुर राज्य में ऐसे पर्वतीय क्षेत्र जिनके लिए तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन जिला परिषदें विद्यमान हैं, को लागू नहीं होगी।
  3. इस भाग की कोई बात जिला स्तर पर पंचायतों के संबंध में पश्चिम बंगाल राज्य के दार्जिलिंग जिले के ऐसे पर्वतीय क्षेत्रों को लागु नहीं होगी जिनके लिए तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद विद्यमान है। किसी बात का यह अर्थ नहीं लगाया जाएगा की वह ऐसी विधि के अधीन गठित दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद् के कृत्यों और शक्तियों पर प्रभाव डालती है।
  4. इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी संसद, विधि द्वारा, इस भाग के उपबंधों का विस्तार खण्ड (1) में निर्दिष्ट अनुसूचित क्षेत्रों और जनजाति क्षेत्रों पर, ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए, कर सकेगी, जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएं और ऐसी किसी विधि को अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों के लिए इस संविधान का संशोधन नहीं समझा जाएगा।

पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 244(1) और 244(2) सरकार को अनुसूचित और जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन हेतु पृथक् विधान लागू करने की शक्ति प्रदान करता है। इन अनुच्छेदों के क्रियान्वयन में, भारत का राष्ट्रपति देश के प्रत्येक राज्य को जनजाति बहुल क्षेत्रों की पहचान करने को कहता है। राज्यों द्वारा चिन्हित किए गए इस प्रकार के क्षेत्रों को पांचवीं अनुसूची के क्षेत्र घोषित किया जाता है। ऐसे क्षेत्रों को विशेष अधिकार शासन तथा जनजाति समुदाय के अधिकारों की रक्षा हेतु विनियम बनाने की शक्ति प्राप्त होती है।

जब 73वां संविधान संशोधन किया गया जिससे संविधान में अनुच्छेद 243 जोड़ा गया, जिसका उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में विकेन्द्रीकृत शासन प्रभाव में लाना था। कई राज्यों, जिनमें महत्वपूर्ण भौगोलिक क्षेत्र (उदाहरणार्थ मध्य प्रदेश और आंध्र प्रदेश) पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आते हैं, इस अधिनियम के सभी प्रावधानों के क्रियान्वयन को विस्तारित किया गया। इस संदर्भ में उच्चतम न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गई और न्यायालय ने तुरंत इस मामले में हस्तक्षेप किया और संसद को निर्देश दिया कि अनुसूची V में आने वाले क्षेत्रों के स्थानीय शासन के लिए विशेष कदम उठाए जाएं।

उच्चतम न्यायालय के निर्देशों के प्रत्युत्तर में संसद ने देश के पांचवीं अनुसूची में आने वाले क्षेत्रों तक पंचायती राज के लागू किए जाने के संबंध में अनुशंसा प्राप्त करने के लिए मध्य प्रदेश के जनजाति क्षेत्र से सांसद दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता में सांसदों एवं विशेषज्ञों की एक विशेष समिति गठित की। भूरिया कमेटी की अनुशंसाओं के आधार पर, संसद ने वर्ष 1996 में, पांचवीं अनुसूची के क्षेत्रों में पंचायत हेतु 73वें संविधान संशोधन अधिनियम में अनुलग्नक के तौर पर एक विशेष प्रावधान का उल्लेख करने के लिए पृथक् कानून पारित किया। मध्य प्रदेश जैसे राज्यों ने, जिसने वर्ष 2000 में चुनाव आयोजित किए, पंचायत विस्तारित अधिनियम के विशेष प्रावधानों के कार्यान्वयन सुनिश्चित किया।

इस विस्तारित अधिनियम ने अनुसूचित क्षेत्रों में ग्राम सभा की विशेष शक्तियां प्रदान की, जो कि सामान्य क्षेत्रों में ग्राम सभा को दी गई शक्तियों से भिन्न है। उदाहरणार्थ, मध्य प्रदेश में पंचायत संबंधी राज्य अधिनियम प्रावधान करता है कि ग्राम सभा का गैर-निर्वाचित जनजाति सदस्य ग्राम सभा की बैठकों की अध्यक्षता करेगा। अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत और साथ ही शासन को प्रदान की गई शक्तियां निम्न हैं-

  • प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन की शक्ति
  • रीति-रिवाजों, प्रथाओं एवं परम्पराओं की संरक्षा एवं परिरक्षण की शक्ति
  • समुदाय के संसाधनों को व्यवस्थित करने की शक्ति
  • परम्परागत पद्धति से विवादों का समाधान करने की शक्ति
  • ऋण प्रदान करने संबंधी व्यवसाय पर नियंत्रण करने की शक्ति

इस अधिनियम ने संविधान के पंचायत संबंधी भाग IX के प्रावधानों को अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित किया। संसद द्वारा इसे भारतीय गणतंत्र के 47वें वर्ष में लागू किया गया, जो इस प्रकार है-

  1. यह अधिनियम पंचायत के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित) अधिनियम, 1996 कहा जाएगा।
  2. इस अधिनियम में, जब तक कि इस संदर्भ की अन्यथा जरूरत न हो, अनुसूचित क्षेत्रों से तात्पर्य वह अनुसूचित क्षेत्र जिन्हें संविधान के अनुच्छेद 244(1) में संदर्भित किया गया है।
  3. संविधान के भाग IX में पंचायत संबंधी प्रावधान, जिन्हें अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तारित किया गया है, धारा 4 में प्रस्तुत किए गए अपवादों और संशोधनों के तहत् होंगे।
  4. संविधान के भाग IX में किसी भी बात के होते हुए भी, राज्य का विधानमण्डल इस भाग के तहत् कोई भी ऐसी विधि नहीं बनाएगा जो निम्न में से किसी भी बात से असंगत हो, नामतः
  • राज्य विधानमण्डल द्वारा पंचायत संबंधी बनाया गया कानून परंपरागत नियमों, सामाजिक एवं धार्मिक कृत्यों और सामुदायिक संसाधनों के परम्परागत प्रबंधन पद्धतियों के आनुरूप्य हो;
  • एक गांव में साधारण रूप से बने अधिवास या अधिवासों का समूह आता है जिसमें एक समुदाय रहता है और अपने मामलों का परम्पराओं और रीति रिवाजों के अनुरूप प्रबंधन करता है;
  • ग्राम स्तर पर प्रत्येक गांव में पंचायत हेतु बनी निर्वाचक नामावली में शामिल व्यक्तियों से बनी एक ग्रामसभा होगी;
  • प्रत्येक ग्राम सभा लोगों की परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों, रक्षा एवं संरक्षण और विवादों का परम्परागत पद्धति से निपटारा करने में सक्षम होगी;
  • प्रत्येक ग्राम सभा करेगी-
  1. पंचायत द्वारा ग्राम स्तर पर योजनाओं, कार्यक्रमों और प्रोजेक्टों के कियान्वयन से पूर्व सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए ऐसे कार्यक्रमों, योजनाओं और प्रोजेक्टरों को ग्राम सभा अनुमोदित करेगी;
  2. प्रत्येक ग्राम सभा निर्धनता उन्मूलन और अन्य कार्यक्रमों के तहत लाभार्थियों के चयन या पहचान के लिए जिम्मेदार होगी;
  • ग्राम स्तर पर प्रत्येक पंचायत को खण्ड (e) में संदर्भित योजनाओं, कार्यक्रमों और प्रोजेक्टों के लिए उसे दिए गए धन के उपयोग के लिए ग्राम सभा से इसके लिए एक सर्टिफिकेट प्राप्त करना जरूरी होगा;
  • अनुसूचित क्षेत्रों में प्रत्येक पंचायत में सीटों का आरक्षण संविधान के भाग IX में दिए गए उस पंचायत में समुदायों की जनसंख्या के अनुपात में होगा;

उपबंध किया गया है की अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण कुल सीटों का आधे से कम नहीं होगा;

आगे उपबंध किया गया है कि सभी स्तरों पर पंचायत अध्यक्ष की सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित रहेंगी;

  • राज्य सरकार ऐसे अनुसूचित जनजातियों से सम्बद्ध व्यक्तियों को नामनिर्दिष्ट कर सकती है जिनका पंचायत में मध्यवर्ती स्तर या जिला स्तरीय पंचायत में कोई प्रतिनिधित्व न हो; उपबंध किया गया है कि इस प्रकार का नामांकन उस पंचायत में चुने गए कुल सदस्यों का 1/10 से अधिक नहीं होगा;
  • विकास कार्यों के लिए अनुसूचित क्षेत्रों में भूमि अधिगृहण और अनुसूचित क्षेत्रों में ऐसे कार्यों से प्रभावित लोगों के पुनर्वास से पूर्व उचित स्तर पर ग्राम सभा या पंचायतों से परामर्श किया जाएगा; अनुसूचित क्षेत्रों में कार्यों की वास्तविक योजनाएं एवं क्रियान्वयन राज्य स्तर पर समन्वित किए जाएं;
  • अनुसूचित क्षेत्रों में छोटे जल निकायों के नियोजन एवं प्रबंधन को उचित स्तर पर पंचायतों को सौंपा जाएगा;
  • अनुसूचित क्षेत्रों में सीमित खनिजों के लाइसेंस या लीज पर उत्खनन की अनुमति से पूर्व उचित स्तरों पर ग्राम सभा या पंचायत की पूर्व अनुशंसाओं को आदेशात्मक बनाया जाएगा;
  • अनुसूचित क्षेत्रों में नीलामी द्वारा सीमित खनिजों के निष्कर्षण हेतु छूट की अनुमति के लिए उचित स्तर पर ग्राम सभा एवं पंचायत की पूर्व की अनुशंसाओं को अनिवार्य किया जाएगा;
  • जबकि अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायतों को ऐसी शक्तियां एवं प्राधिकार सौंपे गए हैं जो उनके स्वशासन के संस्थान के तौर पर कार्यक्षम होने के लिए जरूरी हो सकता है, राज्य विधानमण्डल यह सुनिश्चित करेगी कि पंचायत एवं ग्राम सभा को उचित स्तर पर विशेष रूप से शक्ति एवं प्राधिकार सोंपे गए हैं।
  • राज्य विधानमण्डल जो पंचायतों को उनके स्वशासन के संस्थान के तौर पर कार्य करने हेतु आवश्यक शक्ति एवं प्राधिकार सौंप सकता है, यह सुनिश्चित करने के लिए सुरक्षा मापदंड रखेगा कि उच्च स्तर पर पंचायत निम्न स्तर पर किसी पंचायत या ग्राम सभा की शक्तियों और प्राधिकार की न हथिया ले;
  • राज्य विधानमण्डल अनुसूचित क्षेत्रों में जिला स्तर पर पंचायतों में प्रशासनिक प्रबंधन करते समय संविधान की छठी अनुसूची के पैटर्न का अनुसरण करने का प्रयास करेगा।

∎ संविधान के भाग IX में किसी बात के होते हुए भी, अनुसूचित क्षेत्रों से सम्बद्ध पंचायतों के बारे में इस अधिनियम द्वारा बनाया गया कोई प्रावधान, कोई नियम, अपवाद एवं संशोधन इस अधिनियम के राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त करने से भाग IX के प्रावधानों के साथ असंगत होने पर भी जारी रहेंगे जब तक कि इन्हें सक्षम विधानमण्डल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा निरसित न किया जाए या राष्ट्रपति से इस अधिनियम को प्राप्त स्वीकृति को एक वर्ष न हो गया हो; उपबंध किया गया है कि इस दिन से (अधिनियम की स्वीकृति की तारीख) पूर्व मौजूद पंचायतें अपने नियत कल समाप्त होने तक बनी रहेंगी जब तक कि यथाशीघ्र राज्य का विधानमण्डल इनके विघटन का प्रस्ताव पारित न कर दे, जिन राज्यों में विधान परिषद् है, वहां राज्य की विधानमंडल के प्रत्येक सदन द्वारा यह प्रस्ताव पारित किया गया हो।

पंचायती राज मंत्रालय द्वारा उठाए गए कदम

पंचायती राज मंत्रालय ने पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा) के क्रियान्वयन के संबंध में निम्न कार्य किए हैं-

  • मंत्रालय ने 21 मई, 2010 को सभी राज्यों को इस संबंध में व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए।
  • सभी राज्यों को पेसा नियमों को बनाने और लागू करने का आदेश जारी किया।
  • ग्राम सभा को सशक्त करने हेतु राज्यों को 2 अक्टूबर, 2009 की दिशा-निर्देश जारी किए।
  • राज्यों के साथ इस बारे में लगातार समीक्षा बैठकें कीं।
  • पेसा अधिनियम के संशोधन हेतु एक नोट वितरित किया।

दिसम्बर, 2006 में केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय ने पंचायत की दशा शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की। इस रिपोर्ट में पंचायती राज व्यवस्था की अब तक की स्थिति को उद्घाटित किया गया है। इसने 73वेंसंविधान संशोधन में उल्लिखित प्रावधानों और वास्तव में मौजूद जमीनी हकीकत के बीच भारी अंतर को दिखाया। इस रिपोर्ट के अनुसार, पंचायती राज के प्रभावी कार्यान्वयन में सबसे बड़ी बाधा एवं चुनौती वित्त की कमी रही है। पंचायती चुनावों में जन सहभागिता तात्विक रही है और कुछ समय तो यह संसदीय चुनावों से भी अधिक रही है। पंचायती चुनावों की निगरानी एवं पर्यवेक्षण राज्य निर्वाचन आयोग करता है तथा राज्य_ स्तर में इसमें विभिन्नता एवं उतार-चढ़ाव दृष्टिगत होते हैं।

रिपोर्ट में बताया गया है कि चुनाव संबंधी सभी जिम्मेदारियां जैसे- निर्वाचक नामावली तैयार करना, निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन, उम्मीदवारों का आरक्षण एवं पुनर्चक्रण तथा चुनाव संबंधी आचारसंहिता, पूरी तरह से राज्य निर्वाचन आयोग में निहित हैं। इसमें बताया गया है कि सामान्य निर्वाचक नामावली तथा इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के प्रयोग ने भयमुक्त एवं निष्पक्ष पंचायत चुनावों में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। रिपोर्ट में, राज्य योजना के लिए केंद्र द्वारा जारी या अतिरिक्त केंद्रीय सहायता के रूप में वित्त पोषण की समीक्षा करने की अनुशंसा की गई है। साथ ही वित्त पोषण की संरचना एवं प्रक्रिया के सरलीकरण की बात भी कही गई है।

रिपोर्ट में बताया गया है कि पंचायत में राजस्व सुधार इस बात पर निर्भर करेगा कि वे कितनी सफलतापूर्वक राजस्व वृद्धि हेतु करारोपण कर सकते हैं। दूसरी ओर लोगों का करों के भुगतान के लिए इच्छुक होना पंचायत का लोगों के मध्य लोकप्रियता एवं विश्वास को जाहिर करेगा। इस बात की भी बल दिया गया है कि राज्य वित्त आयोग का संवैधानिक प्रावधान किया जाना चाहिए जिससे पंचायत स्तर पर धन की उपलब्धता निश्चित रूप से बढ़ेगी।

प्रतिवेदन मेंजाति-आधारित पंचायत या खाप पंचायत को पंचायती राज व्यवस्था का विकृत रूप बताया गया है। खाप पंचायतों को अवैध एवं संभवतः गैर-क़ानूनी ऐसे निकाय बताया है जो सामाजिक बुराइयों एवं दोषों पर अत्याधिक अनुक्रियात्मक तरीके से अव्यवस्था को जन्म दे रहे हैं। इस प्रकार इन पंचायतों को संविधान में उल्लिखित पंचायत के समान वैधता प्राप्त नहीं है। इन पंचायतों को संविधान की भावना एवं प्रावधान के अंतर्गत बनायीं गयी पंचायतों से अलग कर लिया जाना चाहिए तथा इनके गैर-कानूनी तरीकों से सामाजिक विषयों के निपटारे पर रोक लगाई जानी चाहिए।

पंचायती राज में महिलाओं की स्थिति

  • पंचायती राजव्यवस्था में महिलाओं के राजनीतिक सशक्तिकरण को प्रभावकारी तरीके से हासिल किया गया है। विश्व की तुलना में भारत में सर्वाधिक महिलाएं स्थानीय निकायों में चुनी गई हैं।
  • संविधान ने पंचायत व्यवस्था में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत के आरक्षण की व्यवस्था की है।
  • पंचायती राज मंत्रालय के अनुसार, महिलाओं का प्रतिनिधित्व 42 प्रतिशत तक बढ़ा है।
  • इसके द्वारा लिंग संबंधी समीकरणों में नाटकीय रूप से परिवर्तन हुआ है और ग्रामीण क्षेत्रों में नेतृत्व की रूपरेखा बदली है।
  • पंचायतों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व में बढ़ोत्तरी के साथ-साथ महिला एवं सहायता समूहों के आंदोलनों ने भी महिला आत्म विश्वास को नई ऊचाइयां प्रदान की है।

पंचायती राज का सिंहावलोकन

लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करने की दृष्टि से पंचायती राज संस्थाओं को भारतीय संविधान में स्वशासन की इकाई की अवधारणा का उल्लेख एक सही कदम है, किंतु ध्यान देने की बात है कि यह इकाई राजनीतिक के साथ-साथ आर्थिक इकाई भी है। इस संदर्भ में ग्राम सभा को एक कृषि औद्योगिक समुदाय की संज्ञा दी जा सकती है। जी.वी.के. राव समिति की रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि विकास कायों में गांव के लोगों का स्वैच्छिक सहयोग स्वावलम्बन की दिशा में पहला कदम होगा।

राज्यों के पंचायत अधिनियमों में ऐसा प्रावधान है कि ग्राम सभा की इस जिम्मेदारी को निभाना है कि ग्रामीण विकास के किसी कार्यक्रम में श्रमदान हेतु लोगों को प्रेरित किया जाए। निःसंदेह इसके लिए पंचायती राज संस्थाओं के स्तर पर एक गतिशील नेतृत्व की आवश्यकता होगी। सभी राज्यों के पंचायती राज संस्थाओं की कार्यकारिणी में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। कुछ राज्यों (बिहार, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड) में महिलाओं के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान लागू है।

ग्राम सभा की बैठकों में पुरुषों की तुलना में आम महिलाओं की भागीदारी बेहद कम होती है। यह असमानता महिला सशक्तीकरण की दृष्टि से एक गलत संदेश देती है। आज महिलाओं द्वारा गठित स्वयं सहायता समूहों का व्यापक स्तर पर विकास हुआ है। किंतु यह अब तक साफ जाहिर नहीं होता है की पंचायती रह संस्थाओं से इन समूहों का सम्बन्ध बन पाया है या नहीं। यदि ग्राम सभा के स्तर पर इन समूहों की महिलाओं की उपस्थिति सुनिश्चित की जाए तो ग्राम सभा में आम महिलाओं की भी भागीदारी बढ़ेगी। इसके अतिरिक्त आम महिलाओं को स्वयं सहायता समूह बनाने की प्रेरणा मिलेगी और यह महिला सशक्तिकरण की दृष्टि से एक सराहनीय कदम होगा।

यह खेदजनक है कि अधिकतर ग्राम पंचायत क्षेत्रों में इनका कोई पंचायत भवन नहीं है जहां इन संस्थाओं की बैठक हो सके। हर ग्राम पंचायत में कार्यालय और एक बड़े सभा कक्ष की आवश्यकता होगी। किंतु इनके निर्माण हेतु कितनी भूमि की आवश्यकता होगी, यह स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं है।

द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग के संदर्भ में स्थानीय स्वशासन: आयोग के अनुसार स्थानीय स्वशासन निकाय अपने स्तर पर एक सरकार है और इस नाते वह देश की मौजूदा शासन प्रणाली का अभिन्न अंग है, इसलिए निर्दिष्ट कार्यों के निष्पादन के लिए इन निकायों को देश के मौजूदा प्रशासनिक ढांचे की प्रतिस्थापित करते हुए सामने आना चाहिए। इस आधार पर जब तक स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के लिए कोई स्वायत्त जगह निर्मित नहीं की जाती तब तक स्थानीय स्वशासन के क्षेत्र में कोई खास सुधार कर पाना संभव नहीं होगा। जबकि स्थानीय स्तर पर जिला प्रशासन के साथ-साथ राज्य सरकार की कुछ संस्थापनाओं के प्रतिधारण के औचित्य पर कुछ सवाल उठ सकते हैं उनके कार्यों एवं उत्तरदायित्व उन क्षेत्रों में आ सकते हैं जोकि स्थानीय निकायों के अधिकार क्षेत्र से बाहर हों। जहां तक इन्हें सांपे गए कार्यों का प्रश्न है स्थानीय शासन संस्थाओं को स्वायत्तता होनी चाहिए और इन्हें राज्य सरकार की नौकरशाही के नियंत्रण से पूरी तरह से मुक्त होना चाहिए।

आयोग ने कहा है-

  • स्थानीय शासन को शक्तिसंपन्न बनाने के लिए द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग ने कई सिद्धांतों की संस्तुति जिनमें शामिल हैं- विकेंद्रीकरण के संदर्भ में आनुषंगिकता के सिद्धांत का अनुप्रयोग, स्थानीय शासन तथा इसी तर्ज पर राज्य सरकारों को और स्थानीय शासन के विविध स्तरों के लिए कार्यों का स्पष्ट निरूपण तथा विभाजन, क्षमता निर्माण और जवाबदेही रेखांकित करते हुए इन कार्यों और संसाधनों की प्रभावकारी सुपुर्दगी कार्यक्रमों और एजेंसी के अभिसरण के माध्यम से स्थानीय सेवाओं और विकास का अर्थात् जनकेंद्रित बनाना।
  • स्थानीय शासनों के राजस्व आधार को विस्तृत और सुदृढ़ करने के संबंध में एक विस्तृत कार्य शुरू करने की आवश्यकता है। इस कार्य में संसाधन जुटाने के चार प्रमुख पहलुओं अर्थात्
  1. कराधान की संभाव्यता
  2. यथार्थ कर दरों का निर्धारण
  3. कर-आधार को बढ़ाना,
  4. संग्रहण में सुधार लाना,

इन सभी को एक साथ देखना होगा।

 

  • ग्राम पंचायतों में निहित संपत्ति की सभी आय संपदाओं को अभिज्ञात, सूचीबद्ध करना और इसे राजस्व उत्पत्ति के लिए उत्पादक बनाया जाना चाहिए।
  • राज्यसरकारों की विधि द्वारा पंचायतों के कर दायरे को बढ़ावा जाए। साथ ही, इसी कर दायरे में कर वसूलना पंचायतों के लिए अनिवार्य बनाया जाए।
  • उच्च स्तर पर, स्थानीय निकायों को ठोस वित्तीय आधार और व्यवहार्यता के आधार पर परिवहन, जलापूर्ति और उर्जा संवितरण जैसे कार्यों को को संचालित/व्यवस्थित करने के लिए प्रोत्साहन दिया जाए।
  • विस्तृत कर क्षेत्र में, अन्य बातों के साथ-साथ मवेशियों, रेस्तराओं,  बड़ी दिकानों, होटलों, साइबर कैफ़े, और पर्यटन बसों इत्यादि का पंजीकरण शामिल है।
  • राज्य सरकार द्वारा संग्रहित खनिजों से प्राप्त रॉयल्टी का पर्याप्त हिस्सा पंचायती राज संस्थाओं को दिया जाना चाहिए।
  • स्थानीय प्रशासन में लोकतंत्र को प्रोत्साहित किया जाए।
  • स्थानीय प्रशासन को अधिक नागरिक केन्द्रित बनाया जाए।
  • स्थानीय निकायों को अधिक शक्तिशाली एवं उत्तरदायी बनाने हेतु दिशा-निर्देशों के निर्धारण हेतु संसद द्वारा कानून का निर्माण किया जाए।
  • जिला स्तर पर लोकतांत्रिक सरकार का तीसरा स्तर सृजित किया जाए।
  • राज्य शासन में स्थानीय निकायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए प्रत्येक राज्य में विधान परिषद का गठन किया जाए।
  • निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन एवं आरक्षण प्रावधान का दायित्व राज्य निर्वाचन आयोगों पर छोड़ दिया जाए।
  • महापौरों के चुनाव जनता द्वारा प्रत्यक्ष कराए जाने चाहिए।
  • शहरीकरण के कारण उत्पन्न समस्याओं के निदान के लिए राष्ट्रीय आयोग गठित किया जाना चाहिए।
  • दस लाख से अधिक जनसंख्या वाले जिलों के लिए एकीकृत महानगर परिवहन प्राधिकरण का गठन किया जाए।
  • स्थानीय निकायों में पारदर्शिता व इनकी जवाबदेही हेतु लोकपाल (Local Body Ombudsmen) का गठन किया जाए।

ग्राम सभा की महत्ता को देखते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को इस पर विचार करना होगा कि गांव के आमजन की भागीदारी ग्राम सभा के स्तर पर कैसे बढ़ाई जाए जिससे कार्यों में पारदर्शिता आए। पारदर्शिता से पंचायती राज संस्थाओं के चुने हुए पदाधिकारियों में जवाबदेही की भावना बढ़ेगी। इस संदर्भ में इसका उल्लेख किया जा सकता है कि 1968 में सामुदायिक विकास एवं सहकारिता मंत्रालय ने आर.आर. दिवाकर की अध्यक्षता में एक अध्ययन दल गठित किया था जिसकी रिपोर्ट पर उस समय चर्चा हुई थी। किंतु अब तो शायद उस रिपोर्ट की स्मृति मात्र भी शेष नहीं है। उस रिपोर्ट के साथ-साथ उस नए परिवेश एवं कार्यों की दृष्टि में रखते हुए ग्राम सभा की भूमिका की समीक्षा पुनः की जा सकती है। आज हर कार्यक्रम के लिए पारदर्शिता और जवाबदेही की बात होती है, किंतु इसमें ग्राम सभा की भूमिका की चर्चा सही ढंग से नहीं होती है। केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारण्टी योजना) जैसे कार्यक्रम में पंचायती राज संस्थाओं का सक्रिय सहयोग लिया जाता है। गौरतलब है कि मनरेगा की परियोजनाओं के क्रियाकलाप की देख-रेख में ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम सभा की अहम भूमिका पंचायती राज प्रणाली में जनसहभागिता का द्योतक है। मनरेगा की धारा 13 से 17 के बीच पंचायती राज संस्थाओं के अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इसके तहत् नरेगा का 50 प्रतिशत धन पंचायती राज संस्थाओं द्वारा प्रत्यक्ष रूप से व्यय किया जाएगा। ग्राम सभा ग्राम पंचायत की विशेषीकृत परियोजनाओं की सलाह दे सकेगा। इसी अधिनियम की धारा-19 कहती है कि राज्य सरकार, योजना के क्रियान्वयन के क्रम में किसी व्यक्ति द्वारा की गई किसी शिकायत के निस्तारण के लिए, नियमों द्वारा खंड एवं जिला स्तर पर समुचित तंत्र निश्चित करेगी और ऐसी शिकायत के निस्तारण के लिए प्रक्रिया निर्धारित करेगी।

केन्द्रीय पंचायत राज मंत्रालय ने पंचायती राज संस्थाओं के सुदृढ़ीकारण हेतु अक्टूबर, 2009 में पंचायती राज संस्थाओं द्वारा मनरेगा के सफलतापूर्वक क्रियान्वयन हेतु मार्गदर्शन जारी किया था।

विगत 15 वर्षों में राजनीतिक भागीदारी के संदर्भ में महिलाएं चरणबद्ध ढंग से आगे बढ़ती रहती हैं। लगभग 20 लाख निर्वाचित पंचायत प्रतिनिधियों में 10 लाख के आस-पास महिलाएं हैं। महिलाओं की पंचायत में बढ़ती इस भागीदारी को पहचानते हुए पंचायती राज संस्थाओं की निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों की भागीदारी, प्रतिनिधित्व तथा कार्यनिष्पादन को और बढ़ाने के लिए पंचायती राज मंत्रालय पंचायत महिला एवं युवा शक्ति अभियान को वर्ष 2007-08 से कार्यान्वित कर रहा है।

पंचायत सशक्तिकरण एवं जवाबदेही प्रोत्साहन योजना (पीईएआईएस) वर्ष 2005-06 से पंचायती राज मंत्रालय द्वारा लागू एवं कार्यान्वित की गई है। इसके तहत् राज्य सरकारों को अनुच्छेद 243जी के अंतर्गत उसकी 11वीं अनुसूची के साथ पठित संवैधानिक औपचारिकता को पूरा करने के लिए पंचायतों के वास्ते कार्य, कोष एवं पदाधिकारी विकसित करने के लिए राज्य सरकारों को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। इस योजना का उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं को पर्याप्त रूप से सशक्त करने के लिए राज्यों को प्रोत्साहित करना और पंचायती राज संस्थाओं को जवाबदेही की ओर लेन की व्यवस्था करना है।

केंद्रीय पंचायती राज मंत्रालय 73वें संविधान संशोधन के वास्तविक क्रियान्वयन हेतु मॉडल पंचायत व ग्राम स्वराज अधिनियम का प्रारूप तैयार किया है जिसे 26 मई, 2009 को विभिन्न राज्य सरकारों से क्रियान्वयन हेतु आग्रह किया है। इसकी विशेषताएं हैं-

  • नागरिकों के अधिकारों एवं कर्तव्यों की व्याख्या करना,
  • फंड, फंक्शन व फंक्शनरीज के विकेंद्रीकरण पर कार्रवाई,
  • ग्राम सभा की केंद्रीय भूमिका द्वारा पंचायतों का उत्तरदायित्व, सुनिश्चित करना, सामाजिक लेखांकन व लोकपाल सहित लेखा व लेखा परीक्षण से संबंधित प्रावधानों को स्पष्ट करना।
  • बीच-बचाव, समझौता इत्यादि द्वारा विवाद निराकरण के लिए न्याय पंचायत तंत्र का प्रस्ताव।
  • राज्य चुनाव आयोग एवं वित्त आयोग के लिए आदर्श ढांचा उपलब्ध कराना।
  • पंचायत वित्त, योजना, बजट एवं स्व-संसाधनों के विभिन्न पहलुओं की व्याख्या।
  • ग्रामीण नीतियां, जन्म/मृत्यु/आवास प्रमाणपत्र इत्यादि से जुड़े मुद्दे से संबंधित विनियामकीय शक्तियों से पंचायतों को सुसज्जित करना।

देश में ग्राम पंचायतों, मध्यवर्ती पंचायतों एवं जिला पंचायतों में शासन की गुणवत्ता सुधार के लिए केंद्र सरकार ने सभी पंचायतों को ई-सक्षम करने के लिए ई-पंचायत मिशन मोड परियोजना नामक एक परियोजना आरंभ की है, जो उनके कार्यकरण को और अधिक कुशल एवं पारदर्शी बनाएगी। ई-पंचायत का उद्देश्य पंचायती राज संस्थाओं को आधुनिकता, दक्षता, उत्तरदायित्व का प्रतीक बनाना एवं सूचना व संचार प्रौद्योगिकी के प्रति वृहत् ग्रामीण आबादी को अभिप्रेरित करना है। इस परियोजना का नेतृत्व केंद्र द्वारा और कार्यान्वयन राज्यों द्वारा किया जा रहा है। ई-पंचायत द्वारा पंचायतों के लिए राष्ट्रीय पंचायत निर्देशिका, पंचायतों की सामाजिक जनसांख्यिकीय प्रोफाइल, ऑनलाइन परिसंपत्तियों के पंचायतों की परिसंपत्ति निर्देशिका, पंचायत लेखांकन, योजना का ऑनलाइन कार्यान्वयन और निगरानी, शिकायत निवारण, सामाजिक अंकेक्षण, मांग प्रबंधन प्रशिक्षण जैसी सेवाएं प्रदान करना संभव हो पाया है।

पंचायती राज की आवश्यकता एवं महत्व

पंचायतों का अस्तित्व यद्यपि प्राचीन काल में भी विद्यमान था, किन्तु समकालीन पंचायती राज संस्थाएं इस अर्थ में नयी हैं कि उन्हें काफी अधिक अधिकार, साधन एवं उत्तरदायित्व सौंपे गए हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होते हैं-

  1. भारत में स्वस्थ लोकतान्त्रिक परम्पराओं की स्थापित करने के लिए पंचायत व्यवस्था ठोस आधार प्रदान करती है। इसके माध्यम से शासन सत्ता जनता के हाथों में चली जाती है। इस व्यवस्था द्वारा देश की ग्रामीण जनता में लोकतान्त्रिक संगठनों के प्रति रुचि उत्पन्न होती है।
  2. पंचायतों के कार्यकर्ता एवं पदाधिकारी स्थानीय समाज एवं राजनीतिक व्यवस्था के मध्य की कड़ी है। इन स्थानीय पदाधिकारियों के बिना ऊपर से प्रारम्भ हुए राष्ट्र-निर्माण के क्रिया-कलापों का चलना दुष्कर हो जाता है।
  3. पंचायती राज संस्थाएं विधायकों एवं मंत्रियों को राजनीती का प्राथमिक अनुभव एवं प्रशिक्षण प्रदान कर देश का भावी नेतृत्व तैयार करती हैं। इससे राजनीतिज्ञ ग्रामीण भारत की समस्याओं से अवगत होते हैं। इस प्रकार ग्रामों में उचित नेतृत्व का निर्माण करने एवं विकास कार्यों में जनता की अभिरुचि बढ़ाने में पंचायतों का प्रभावी योगदान रहता है।
  4. इन समस्याओं के माध्यम से जनता शासन के अत्यंत निकट पहुंच जाती है। इसके फलस्वरूप जनता एवं प्रशासन के मध्य परस्पर सहयोग में वृद्धि होती है, जो कि भारतीय उत्थान हेतु परमावश्यक है।
  5. पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से केन्द्रीय एवं राज्य सरकारों के मध्य स्थानीय समस्याओं का विकेन्द्रीकरण किया जा सकता है। प्रजातान्त्रिक विकेन्द्रीकरण की इस प्रक्रिया में शासकीय सत्ता गिनी-चुनी संस्थाओं में न रहकर गांव की पंचायत के कार्यकर्ताओं के हाथों में पहुंच जाती है।
  6. पंचायतें लोकतंत्र की प्रयोगशाला हैं। ये नागरिकों को अपने राजनीतिक अधिकारों के प्रयोग की शिक्षा देती हैं। साथ ही उनमें नागरिक गुणों का विकास करने में सहायता प्रदान करती हैं।

पंचायती राज की बाधाएं

पंचायती राज में विकेंद्रीकरण के माध्यम से विकास की गति में वृद्धि होगी, परियोजनाएं शीघ्र पूरी होगों और लोगों की विकास कार्यों में भाग लेने की चेतना में वृद्धि होगी, परन्तु इसके साथ ही कुछ संभावित त्रुटियां भी इस व्यवस्था के अंतर्गत निहित हैं, वे इस प्रकार हैं-

  1. पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत जो लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया है, वह केंद्र को कमजोर बना सकती है। जाति, धर्म, वर्ण और लिंग की उपेक्षा करके यह समाज के सभी वगों की समानता के आधार पर सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय दिलाने की प्रक्रिया में बाधा बन सकती है।
  2. इस व्यवस्था में राष्ट्र की एकता व अखंडता के लक्ष्य की उपलब्धि के मार्ग में भी बाधाएं आ सकती हैं। एक तो पहले से ही अलगाववादी और उग्रवादी शक्तियां देश की एकता और अखंडता को तोड़ने का प्रयास कर रही हैं, ऊपर से इन व्यवस्थाओं द्वारा भी इसका हनन किया जा रहा है। इन आतंकवादी शक्तियों ने राष्ट्रवाद के सूत्रों को भी कमजोर किया है।
  3. पूर्व में हम यह अनुभव कर चुके हैं कि क्षेत्रीय राजनीतिज्ञ स्थानीय संगठनों के कार्यों में हस्तक्षेप करते हैं। वर्तमान परिस्थितियों में, इसे रोक पाना बहुत कठिन काम है। हमारे देश में मुद्रा व शक्ति का जो दुरुपयोग किया जा रहा है, उसे पंचायती राज की सफलता हेतु रोकना होगा।
  4. यह प्रक्रिया राज्य के अल्पसंख्यकों के संरक्षण में बाधा बन सकती है। यद्यपि, सभी राजनैतिक दल अल्पसंख्यकों का समर्थन प्राप्त करना चाहते हैं, तथापि कई ऐसे अन्य कारण हैं, जो उन्हें ऐसा करने से वंचित कर सकते हैं। परिणामस्वरूप, हम देखते हैं कि प्रशासन तंत्र निम्न स्तर के लोगों को दबाए रखने की क्षमता रखता है।
  5. इन व्यवस्थाओं के तहत अधिकारियों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण बना पाना बहुत मुश्किल काम होगा। दोनों के बीच कटु संबंधों के कारण कई स्थानों पर विकेंद्रित संस्थाओं के निष्पादन पर व्यापक प्रभाव पड़ा है।

इन आधारभूत समस्याओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हमें प्रतिक्रियावादी तत्वों पर प्रतिबंध तथा समुचित वातावरण की संरचना हेतु कदम उठाना आवश्यक है। इन तथ्यों से सभी परिचित हैं कि चुनाव दो प्रकार के कार्य करते हैं- एक तो वे ग्रामीण जनता को लोकतांत्रिक संस्थाओं के कार्यों की जानकारी देते हैं तथा दूसरा वे जनता के चुनाव में भाग लेने से होने वाले विकास के महत्व की ओर उनका ध्यान आकर्षित करते हैं। प्रत्येक पांच वर्ष के बाद चुनाव आयोजित करने की संवैधानिक दायित्व से भी पंचायती राज व्यवस्था की सफलता को बल मिलेगा। नियमित चुनाव भी नेताओं को अधिक उत्तरदायी बनाने में सहायक होगा।

राजनैतिक तथा अन्य कारणों से पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिस्थापन पर प्रतिबंध हेतु कड़े नियम बनाने होंगे। यदि राजनीतिक दल पंचायती राज व्यवस्था को अपनी गंदी राजनीति से दूर ही रखें, तो यह राष्ट्र के हित में होगा। जाति, धर्म और मुद्रा शक्ति पर आधारित वर्तमान ढांचे को उखाड़ने के लिए एक सामाजिक क्रांति का होना अति आवश्यक है। महात्मा गांधी के अनुसार, स्वतंत्रता और स्वायत्तता का मूल्य केवल राजनैतिक विकेंद्रीकरण से ही प्राप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी विकेंद्रीकरण अनिवार्य है। तद्नुसार, राजनैतिक तथा आर्थिक विकेंद्रीकरण एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। इसके अतिरिक्त राजनैतिक कार्यकर्ताओं से उन्होंने सदैव सृजनात्मक कार्यों के माध्यम से लोकतंत्र की नींव तैयार करने की अपील की।

समाज कल्याण तथा आर्थिक विकास के उद्देश्य से गठित लोकतांत्रिक ढांचे से लोगों की कई प्रकार की आशाएं होती हैं। बढ़ती आशाएं प्रशासन में लोगों की भागीदारी के लिए यथार्थवादी एवं प्रभावशाली नीतियों की मांग करती हैं। राजनैतिक स्वतंत्रता तथा नीतिगत उद्घोषणाओं से उठी चुनौतियों और आकांक्षाओं के लिए अंतर्मन से किए जाने वाले प्रयासों की आवश्यकता है। लोक कार्यो का प्रबन्ध लोकतांत्रिक होना चाहिए। निम्न स्तर पर लोगों के प्रतिनिधियों से लेकर उच्च स्तर तक दायित्वों का विकेंद्रीकरण व स्थानीय स्वायत्तता आवश्यक है। यहां द्रष्टव्य है कि भारत की संस्कृति, भाषा आदि की अनेकता इस कार्य को कुछ अधिक जटिल बना देती है।

अंततः हम यह आशा करते हैं कि निचले स्तर पर जिस लोकतंत्र की व्यवस्था की गयी है वह कई राज्यों के ग्रामीण नागरिकों में जागृति लाने की प्रक्रिया में मुख्य भूमिका निभाएगी। निर्बाध गति से चल रहे है। इस लोकतंत्र में किसी प्रकार का कोई क्रांतिकारी परिवर्तन संभव नहीं है। किन्तु, बेहतर भविष्य के लिए यह परिवर्तन का वाहक अवश्य सिद्ध हो सकता है।

पंचायती राज व्यवस्था की अधिक प्रभावी एवं व्यावहारिक बनाने हेतु सुझाव

  1. पंचायती राज व्यवस्था को और अधिक प्रभावी एवं व्यवहारिक बनाने तथा प्रोत्साहित करने हेतु यह आवश्यक है कि ग्राम सभा को कानूनी मान्यता प्रदान की जाए तथा उसकी कार्यवाही का संचालन जन-भावनाओं के अनुसार किया जाए। ग्रामीण जीवन को प्रभावित करने वाले समस्त महत्वपूर्ण मुद्दों पर ग्राम सभा में विचार-विमर्श होना चाहिए। ग्राम सभा द्वारा विचार किए जाने योग्य विषयों के अंतर्गत पंचायत का बजट, पंचायत के कार्यों का विवरण, योजनाओं की प्रगति, ऋण एवं अनुदानों का उपयोग, स्कुल एवं सहकारी सहकारी समितियों किव्य्वस्था, लेखा-परिक्षण की रिपोर्ट, आदि सम्मिलित किए जाने चाहिए।
  2. पंचायती राज संस्थाओं को कर लगाने के कुछ व्यापक अधिकार दिए जाने चाहिए। पंचायती राज संस्थाओं के पास अपने स्वयं के साधन विकसित किए जाने चाहिए ताकि वे अपने वित्तीय साधनों में वृद्धि करके अधिक स्वतन्त्रतापूर्वक अपने विवेकानुसार कर्तव्यों का निर्वहन कर सकें। राज्य सरकार द्वारा इन संस्थाओं को प्रदान किए जाने वाले अनुदानों में वृद्धि की जानी चाहिए। राज्य सरकार को पंचायती राज संस्थाओं को ब्याजरहित भारी ऋण देकर स्वयं के लाभदायक व्यवसाय चलाने हेतु अनुप्रेरित किया जाना चाहिए। कर वसूल करने वाली मशीनरी को और अधिक प्रभावशाली बनाया जाना चाहिए।
  3. पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचन नियत समय पर सम्पन्न कराए जाने चाहिए।
  4. पंचायती राज संस्थाओं को और अधिक कार्यपालिका अधिकार प्रदान किए जाने चाहिए।
  5. नियम एवं कार्यवाहियां सुगम बनाई जानी चाहिए। नियम इस प्रकार के होने चाहिए जिन्हें साधारण व्यक्ति सरलतापूर्वक समझ सके।
  6. पंचायती राज संस्थाओं की कार्यप्रणाली में राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए तथा इन संस्थाओं के चुनाव सर्वसम्मति के आधार पर होने चाहिए।
  7. पंचायती राज संस्थाओं को अकारण ही समयावधि से पूर्व ही भंग करने की राज्य सरकारों की प्रवृत्ति से बचाना चाहिए।
  8. पुलिस एवं राजस्व सेवाओं का सहयोग सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
  9. साधारण जनता की समस्याओं के निवारणार्थ पंचायतों की अधिकार एवं साधन प्रदान किए जाने चाहिए। पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में लोगों की अधिकाधिक समस्याएं लाई जानी चाहिए। ताकि लोग अपनी कठिनाइयों को दूर कर सकें तथा समस्याओं का शीघ्र समाधान प्राप्त कर सकें।
  10. प्रशासन के प्रत्येक स्तर पर मितव्ययता बरतनी चाहिए।
  11. जिला परिषद के मुख्य कार्यपालक अधिकारी को कर्मचारियों में अनुशासन स्थापित करने तथा उनसे काम लेने हेतु प्रभावपूर्ण शक्तियां प्रदान की जानी चाहिए। कर्मचारियों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट उसके ठीक ऊपर के उस अधिकारी द्वारा लिखी जानी चाहिए, जिसके अधीन वे कार्य कर रहे हैं। इस रिपोर्ट को मुख्य कार्यपालक अधिकारी के समक्ष प्रस्तुत किया जाना चाहिए।
  12. जिला स्तर के अधिकारियों को समूहभाव अर्थात् टीम-भावना के साथ कार्यकरना चाहिए। उनका प्रमुख दायित्व जिला परिषद,पंचायत सरकारी नीतियों एवं निर्देशों के अनुसार तकनीकी दृष्टि से सुव्यवथित योजनाएं बनाने तथा उनकी क्रियान्विति में सहायता प्रदान करना है।
  13. जिला परिषद को सौंपे जा सकने योग्य कार्य एवं परियोजनाएं राज्य सरकार द्वारा जिला परिषद को सौंप दिए जाने चाहिए। पंचायत समितियों से वे परियोजनाएं वापिस ले लेनी चाहिए जो जिला परिषद स्तर पर अधिक कुशलतापूर्वक क्रियान्वित की जा सकती हैं।
  • सामुदायिक विकास कार्यक्रम का प्रारंभ 1952 में किया गया।
  • सर्वप्रथम आध्र प्रदेश में 1958 में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रयोग के तौर पर कुछ भाग में लागू किया गया।
  • पंचायती राज व्यवस्था का अंगीकरण सर्वप्रथम राजस्थान राज्य द्वारा नागौर जिले में 2 अक्टूबर, 1959 को किया गया था।
  • 73वें एवं 74वें संविधान संशोधन के माध्यम से क्रमशः पंचायती राज व्यवस्था एवं नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया है।
  • वर्तमान पंचायती राज व्यवस्था त्रिस्तरीय है- ग्राम स्तर पर ग्राम सभा, प्रखण्ड स्तर पर जिला परिषद एवं जिला स्तर पर जिला पंचायत। 20 लाख से कम जनसंख्या वाले राज्यों में प्रखण्ड स्तर अनिवार्य नहीं है।
  • भारत में पंचायती राज के पचास वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में वर्ष 2009-10 को केंद्रीय सरकार ने ग्राम सभा वर्ष घोषित किया।
  • ग्रामीणों को शीघ्र न्याय पहुंचाने हेतु ग्राम न्यायालय स्थापित करने के लिए ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 को 2 अक्टूबर, 2009 से लागू कर दिया गया है।
  • सर्वप्रथम 2005 में बिहार सरकार ने राज्य की पंचायत संस्था में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान किया। तत्पश्चात् उत्तराखण्ड, कर्नाटक एवं राजस्थान ने स्थानीय निकायों में महिलाओं को 50 प्रतिशत आरक्षण प्रदान करने की उद्घोषणा की।

उपरिलिखित शर्तों एवं सुझावों को पूरा करने के लिए केंद्रीय सरकार, राज्य सरकारों, गैर-सरकारी संगठनों, प्रशासन, समाचार-पत्रों, रेडियो, दूरदर्शन तथा बुद्धिजीवियों सभी के सहयोग की आवश्यकता है। पंचायती राज की सफलता केवल ग्रामीण स्तर पर स्थानीय स्वशासन की सक्रियता के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है अपितु यह देश में लोकतंत्र के विकास के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण प्रशिक्षण स्थल तथा राजनीतिक समाजीकरण के लिए भी उचित साधन के रूप में लगभग अनिवार्य है। इसलिए आवश्यक है कि पहले की तरह पंचायती राज को ग्रामीण स्तर पर सत्ता संघर्ष का अखाड़ा और विशिष्ट वर्गों के हाथों का खिलौना न बनने दे तथा देश में उचित लोकतांत्रिक वातावरण के विकास के लिए इसका संभावित उपयोग करें।

( Sources : http://www.vivacepanorama.com, Wikipedia)

II. Online Material for Panchayati Raj : Patwari Exam  2017 

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1. Important Websites Related for Panchayati Raj

Panchayati Raj ki preparation ke liye aapko sabase pahale jaruri he ki Indian Government ke Related Mantralay ke Bare me Jane Samajhe or usase related kya kya yojnaye he  –

2. Online Material for Panchayati Raj and Gramin Arthvyavastha Patwari Exam

Dear Friends hamane online search karake bahut sare PDF files collect ki he aap niche diye hue link se download kar sakate he –

  1. Panchati Raj Vyavaastha ek Survey by MP Govt : Click Here 
    दोस्तों ये  डॉक्यूमेंट हे जिसमे पूरा डिटेल में पंचायती  बताया गया हे , इसको अच्छे  डाउनलोड करके।
    ( Please note is pdf me se sirf Kam ki Jankari hi padiiye )
  2.  बुक फॉर पंचायती राज एंड ग्रामीण अर्थ व्यवस्था –  Book for Panchayati Raj
  3.  एडिशनल मटेरियल  फॉर पंचायती  राज  Click Here To Download
  4.  पंचायती राज मटेरियल PDF Collected By Site   : Panchati Raj By Durgesh
  5. ग्रामीण अर्थव्यवस्था मटेरियल   PDF Collected By Site  – Gramin Arth Vyavastha 
  6. Questions  On Panchayati Raj – PDF Collected By Site  : Panchayati Raj Q and A
  7. राजस्थान  Panchayati Raj PDF File Download : Click Here

3. Important Videos for Panchayati Raj and Gramin Arth Vyavastha

  1. You Tube Video from Sharma Academy –

 

4. Questions On Panchayati Raj Vyavastha : 1 Liner Facts about Panchayati Raj and Gramin Arth Vyvastha

● संविधान के किस भाग में पंचायती राज व्यवस्था का वर्णन है— भाग-9
● पंचायती राज व्यवस्था किस पर आधारित है— सत्ता के विकेंद्रीकरण पर
● पंचायती राज का मुख्य उद्देश्य क्या है— जनता को प्रशासन में भागीदारी योग्य बनाना
● किसके अंतर्गत पंचायती राज व्यवस्था का वर्णन है— नीति-निर्देशक सिद्धांत
● संविधान के किस संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा दिया गया है— 75वें संशोधन
● 75वें संशोधन में कौन-सी अनुसूची जोड़ी गई हैं— 11वीं
● पंचायती राज संस्थाओं के निर्वाचन हेतु कौन उत्तरदायी है— राज्य निर्वाचन आयोग
● भारत में पंचायती राज अधिनियम कब लागू हुआ— 25 अप्रैल, 1993
● सर्वप्रथम पंचायती राज व्यवस्था कहाँ लागू की गई— नागौर, राजस्थान में
● राजस्थान में पंचायती राज व्यवस्था कहाँ लागू की गई— 1959 को
● देश के सामाजिक व सांस्कृतिक उत्स्थान के लिए कौन-सा कार्यक्रम चलाया गया— सामुदायिक विकास कार्यक्रम
● भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम कब आरंभ हुआ— 2 अक्टूबर, 1952
● किसकी सिफारिश पर भारत में पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की गई— बलवंत राय मेहता समिति
● पंचायती राज की सबसे छोटी इकाई क्या है— ग्राम पंचायत
● बलवंत राय समिति के प्रतिवेदन के अनुसार महत्वपूर्ण संस्था कौन-सी है— पंचायत समिति
● पंचायती राज संस्थाओं के संगठन के दो स्तर होने का सुझाव किसने दिया था— अशोक मेहता समिति
● पंचायत स्तर पर राज्य सरकार का प्रतिनिधित्व कौन करता है— ग्राम प्रधान
● पंचायती राज विषय किस सूची में है— राज्य सूची में
● किस संशोधन में महिलाओं के लिए ग्राम पंचायत में एक-तिहाई सीटें आरक्षित की गईं— 73वें संशोधन में
● पंचायत चुनाव के लिए उम्मीदवार की आयु कितनी होनी चाहिए— 21 वर्ष
● पंचायती राज संस्थाएँ अपनी निधि हेतु किस पर निर्भर हैं— सरकारी अनुदान पर
● एक विकास खंड पर पंचायत समति कैसी होती है— एक प्रशासकीय अभिकरण
● भारत में पहला नगर निगम कहाँ स्थापित हुआ— चेन्नई
● ग्राम पंचायतों की आय का स्त्रोत क्या है— मेला व बाजार कर
● किस राज्य में पंचायती राज प्रणाली नहीं है— अरुणाचल प्रदेश में
● पंचायती राज प्रणाली में ग्राम पंचायत का गठन किस स्तर पर होता है— ग्राम स्तर पर
● पंचायती राज संस्था का कार्यकाल कितना होता है— 5 वर्ष
● 73वें संविधान संशोधन में पचायती राज संस्थाओं के लिए किस प्रकार के चुनाव का प्रावधान किया गया— प्रत्यक्ष एवं गुप्त मतदान
● पंचायत के चुनाव हेतु निर्णय कौन लेता है— राज्य सरकार
● पंचायत समिति की गठन किस स्तर पर होता है— प्रखंड स्तर पर
● यदि पंचायत को भंग किया जाता है तो पुनः निर्वाचन कितने समय के अंदर आवश्यक है— 6 माह

 

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